ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान - नौशेरा का शेर ( पाकिस्तान को खाक में मिला दिया)

एक चिट्ठी पर सेना ने पाकिस्तानियों को खत्म कर दिया

सन 1948. देश की आज़ादी और देश की विभाजन को एक वक़्फ़ा बीत चुका था. 30 जनवरी की वो सर्द रात थी. भारतीय सेना की मराठा लाइट इंफैंट्री रेजीमेंट की तीसरी पैरा बटालियन (3 Para MLI) कश्मीर के पथरडी पर नज़र गड़ाए बैठी थी. प्लान के मुताबिक, सूरज की पहली किरण से पहले सैनिकों को दुश्मन पर हमला बोलना था. मकसद था पथरडी पर दोबारा भारत का कब्जा. रात लगभग ढल चुकी थी. तापमान मिनट दर मिनट गिर रहा था. ब्रिगेड के कमांडर का आदेश था कि पूरे ऑपरेशन की किसी को भनक भी नहीं लगनी चाहिए. बंदूक के ट्रिगर पर उंगली सटाए सैनिक सांस रोककर बैठे थे. लेकिन तभी एक कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया. इशारा काफी था. दुश्मन चौकन्ना हो गया. भारतीय सेना हमला करती इससे पहले ही दुश्मन ने फायर खोल दिया. जो कुछ उनके पास था सब झोंक दिया. 3 पैरा MLI के जवानों ने नारा लगाया- 'बोल छत्रपति शिवाजी महाराज की जय', और कबाइलियों पर टूट पड़े. और ऐसे टूटे कि मानों पूरा बदला एक ही बार में निकाल लेंगे. मराठा रेजिमेंट के जवानों ने गोलियां कम खर्च कीं. और जितने कबाइली मिले, पटक-पटक के धोया. बंदूक की नोक पर लगी संगीन (चाकू) घोंपकर मारा. कबाइलियों के लिए बचना मुश्किल हो रहा था. लाशें बिछ रही थीं. कई मरे. कई किसी काम के नहीं रह गए. बाकियों ने भागना ही मुनासिब समझा. और इस तरह एक बार फिर पथरडी में दोबारा भारत का कब्जा हो चुका था.
ना ये युद्ध था. ना कोई बैटल. ये भारतीय सेना के रास्ते में आया एक पड़ाव था. कश्मीर के उन हिस्सों को खाली कराने का जरिया था, जिन पर पाकिस्तान की सेना और कबाइलियों ने घुसपैठ कर दी थी. ये नौशेरा को दोबारा जीतने का प्लान था. और ये प्लान बनाया का 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडर मोहम्मद उस्मान ने. वही ब्रिगेडियर उस्मान जिसके सामने पाकिस्तान की पूरी सेना बौनी नज़र आने लगी थी. वही ब्रिगेडियर उस्मान जिसने 36 साल की उम्र में देश के लिए शहादत दे दी और युद्ध के दौरान मिलने वाले दूसरे सबसे बड़े सम्मान महावीर चक्र की भी शोभा बढ़ा दी.

ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की कहानी

मोहम्मद उस्मान का जन्म सन 1912 में यूपी (तब यूनाइटेड प्रोविंस) के आज़मगढ़ के बीबीपुर गांव में हुआ था. पिता काज़ी मोहम्मद फारुक बनारस के कोतवाल थे. ब्रिटिश सरकार ने मोहम्मद फारुक के काम से खुश होकर उन्हें 'खान बहादुर' की उपाधि दी थी. उस्मान की तीन बड़ी बहने थीं और 2 भाई थे. एक भाई गुफरान भी भारतीय सेना में ब्रिगेडियर के पद से रिटायर हुए. और दूसरे भाई सुभान पत्रकार थे.

मेजर जनरल(रि.) वी के सिंह अपनी किताब लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी में लिखते हैं कि

उस्मान बचपन में हकलाते थे. एक बार उनके पिता उन्हें पुलिस के बड़े अधिकारी से मिलवाने ले गए. उस अंग्रेज अफसर ने उस्मान से कुछ पूछा तो उस्मान ने हकलाते हुए जवाब दिया. इसे संयोग ही कहा जाएगा कि वो अंग्रेज अफसर भी हकलाता था. उसे लगा कि उस्मान उसकी नकल कर रहे हैं. वो अफसर काफी भड़क गया.

'पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं' वाली कहावत उस्मान ने बेजा नहीं जाने दी. उनकी उम्र उस समय 12 साल रही होगी. उस्मान कहीं से आ रहे थे. रास्ते में एक जगह भीड़ लगी थी. उस्मान पहुंचे तो पता चला एक बच्चा कुएं में गिर गया है. उस्मान ने बिना देरी कुएं में छलांग लगा दी. और उस बच्चे को सुरक्षित बाहर निकालकर ले आए.

ब्रिगेडियर उसी परिवार के सदस्य थे जिस परिवार से भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, पूर्व विधायक और हत्या समेत कई मामलों के आरोपी मुख्तार अंसारी और सांसद अफजाल अंसारी ताल्लुक रखते हैं. ब्रिगेडियर उस्मान रिश्ते में मुख्तार अंसारी और अफ़ज़ाल अंसारी के नाना लगते हैं.

सेना में भर्ती का किस्सा

उस्मान ने जब तक भारतीय सेना में जाने का मन बनाया, तब तक ब्रिटिश आर्मी में भारतीयों की अफसर के तौर पर भर्ती शुरू हो गई थी. सन 1920 से ब्रिटिश सरकार ने रॉयल मिलिटरी एकेडमी, सैंडहर्स्ट में भारतीय नौजवानों के लिए रास्ते खोल दिए थे. सन 1932 में उस्मान ने सेना भर्ती में आवेदन किया और सैंडहर्स्ट के लिए चुन लिए गए. उस साल बैच कुल 45 कैटेड्स का था. भारत के 10 लड़कों को ब्रिटिश आर्मी में अफसर के तौर पर चुना गया था.

जिस साल उस्मान सैंडहर्स्ट गए, उसी साल ब्रिटिश आर्मी ने भारत में इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA) का गठन किया था. और इसी साल IMA के लिए सैम मानेकशॉ, स्मिथ दून और मोहम्मद मूसा को चुना गया था. आगे चलकर मानेक शॉ भारत, दून बर्मा और मूसा पाकिस्तान की सेना के सर्वोच्च पद पर तैनात हुए. कहते हैं अगर 1948 में उस्मान शहीद नहीं हुए होते तो वो भारत के सेनाअध्यक्ष जरूर बनते.

मोहम्मद उस्मान सेना में मानेकशॉ से पूरे 4 दिन सीनियर थे. इसके पीछे की कहानी वीके सिंह ने अपनी किताब में बताई हैं. सैंडहर्स्ट से पास हुए कैडेट्स को KCIOs यानी किंग्स कमीशन्ड ऑफिसर कहा जाता था और IMA से पास हुए कैटेड्स को ICOs यानी इंडियन कमीशन्ड ऑफिसर कहा जाता था. 

उस्मान सेना में 1 फरवरी, 1934 को कमीशन्ड हुए. जबकि IMA में ट्रेनिंग के बाद IOCs का बैच एक फरवरी 1935 को. लेकिन सेना ने IOCs के बैच की सीनियॉरिटी एक साल पहले यानी 1934 से दिखाया. लेकिन हुकूमत ये चाहती थी कि ICOs, KCIOs से जूनियर रहें. इसलिए IOCs के बैच को 4 फरवरी 1934 से कमीशन्ड माना गया. और इस तरह उस्मान मानेकशॉ से पूरे 4 दिन सीनियर हो गए.

भंडारी राम को पदक दिलवाने के लिए लड़ गए थे उस्मान

19 मार्च, 1935 को जेंटलमैन कैडेट मोहम्मद उस्मान 10 बलूच रेजीमेंट की 5वीं बटालियन में शामिल हो गए. कुछ दिन नौकरी के बाद वॉर टाइम स्टाफ कोर्स किया. और उसके बाद दूसरे विश्व युद्ध में शामिल होने बर्मा के अंकारा चले गए. यहां उस्मान को बलूच रेजीमेंट की 16/10 बटालियन का सेकेंड इन कमांड बनाया गया. बटालियन के CO यानी कमांडिंग ऑफिसर थे लेफ्टिनेंट कर्नल ज़ॉन फेयरले. उस्मान की ही बटालियन में एक और नौजवान अफसर था जिसका नाम था जोरू बक्शी. फेयरले ने जोरू को एक कंपनी के साथ पेट्रोलिंग के लिए भेजा. ये कंपनी पठानों की थी. जोरू लौटकर आए तो बताया कि कुछ दूर एक पहाड़ी है जिस पर जापानियों का कब्जा है. इधर जॉन फेयरले के ट्रांसफर ऑर्डर भी आ गए थे. लेकिन जाते हुए CO ने जोरू को उस पहाड़ी को अपने कब्जे में लेने का टास्क दे दिया. और साथ में एक क्लॉज़ और जोड़ दिया कि इस बार पठानों की कंपनी के साथ नहीं डोगरा कंपनी के साथ जाना है. मेजर जनरल (रि.) वीके सिंह अपनी किताब में लिखते हैं कि फेयरले ने अपने करियर की शुरुआत डोगराओं के साथ की थी. और इसीलिए उन्हें डोगरा कंपनी पर ज्यादा भरोसा था. हालांकि जोरू पठानों के साथ ही जाना चाहते थे. लेकिन ऑर्डर मानना मजबूरी थी, तो माना. 

डोगरा कंपनी को मजबूत करने के लिए मेस में काम करने वाले जवानों को भी मोर्चे पर भेज दिया गया. इन्हीं में से एक था सिपाही भंडारी राम. रात के अंधेरे के साथ जोरू ने उस पहाड़ी पर तीन तरफा हमला बोला. हर तरफ से एक प्लाटून भेजी. तीखी झड़प हुई. लेकिन जोरू की कंपनी ने पहाड़ी पर कब्जा कर लिया. लेकिन झड़प में सबसे चौंकाने वाला प्रदर्शन था भंडारी राम का. लड़ाई के दौरान भंडारी को कई गोलियां लगीं. यहां तक कि एक ग्रेनेड भंडारी के बिलकुल सामने आकर फटा. लेकिन भंडारी पूरी ताकत के साथ लड़ा.

भंडारी की बहादुरी के किस्से जोरू ने आकर अपनी बटालियन में बताए. क्योंकि फेयरले का ट्रांसफर हो चुका था और नए सीओ ने अभी कमान संभाली नहीं थी तो टेक्निकली उस्मान ही उस समय बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर थे. भंडारी की बहादुरी से उस्मान गदगद थे. उस्मान ने तय किया कि भंडारी राम को विक्टोरिया क्रॉस (VC) सम्मान से नवाज़ा जाना चाहिए. VC ब्रिटिश आर्मी में मिलने वाली सर्वोच्च गैलेंट्री अवॉर्ड था.

अगले दिन बोगी ने बटालियन की कमान संभाली. उस्मान ने सेन से भंडारी के लिए VC की सिफारिश की बात कही. लेकिन सेन को लगा कि अभी-अभी आए हैं और आते ही VC की मांग थोड़ी ज्यादा हो जाएगी. इसलिए उन्होंने VC नहीं, इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट (IOM) की सिफारिश भेजी. उस्मान को ये बात नहीं जमी. उस्मान ने सेन से बात की, लेकिन बात बनी नहीं. 

उस्मान ने सोचा कि उस दिन कमांडिंग ऑफिसर वो थे तो बात उनकी सुनी जानी चाहिए. उस्मान ने आव देखा न ताव, वो पहुंच गए सीधे ब्रिगेड के कमांडर आर ए हटन के पास. उस्मान ने ब्रिगेडियर को उस रात भंडारी की बहादुरी का पूरा किस्सा सुनाया. और पूरी बात सुन कर ब्रिगेडियर भी इस नतीजे पर पहुंचे कि भंडारी राम VC के हकदार हैं. हटन ने IOM की सिफारिश को वापस भेज दिया. इस बार सेना को भी कोई आपत्ति नहीं हुई. और फिर भंडारी राम को ब्रिटेन के सर्वोच्च गैलेंट्री अवॉर्ड विक्टोरिया क्रॉस से नवाज़ा गया.

देश के बंटवारे के समय उस्मान ने क्या किया था?

देश आज़ाद हो रहा था. और देश का बंटवारा भी. राज्य बंट रहे थे. लोग बंट रहे थे. और सेना भी. लेकिन उससे पहले जरूरत की देश में हिंसा और मारकाट रोकने की. सेना की दूसरी एयरबॉर्न डिवीज़न को तैनात किया गया ताकी हिंसा रोकी जा सके. मुल्तान, जैकबाबाद, लाहौर, अंबाला, रावलपिंडी और पंजाब की तमाम जगहों पर दंगे हो रहे थे. दूसरे विश्व युद्ध के बाद इतने सैनिकों को पहली बार हवाई रास्ते से पहुंचाया जा रहा था ताकी हालात पर काबू पाया जा सके. उस्मान ने सैनिकों के साथ इन शहरों को नापना शुरू किया. सेना के पहुंचने से फर्क पड़ा भी. इन पैरा यूनिट्स की तारीफ भी हुई.

लेकिन बात वही कि देश बंट रहा था. बंटवारे के सेटलमेंट में सेनी की दूसरी एयरबॉर्न डिवीज़न का भी बंटवारा हुआ. डिवीज़न का हेडक्वाटर, 50 पैरा और 77 पैरा ब्रिगेड भारत के हिस्से में आई और 14 पैरा ब्रिगेड पाकिस्तान के हिस्से. हालांकि अफसरों और जवानों को इस बात की छूट थी कि वो अपने मन मुताबिक देश को चुन सकते हैं.

उस्मान बलूच रेजीमेंट में थे. धर्म से मुसलमान थे. और सेना के वरिष्ठ अधिकारी थे. तब तक वो ब्रिगेड कमांडर यानी ब्रिगेडियर के पद पर पहुंच चुके थे. लोगों को उम्मीद थी कि उस्मान पाकिस्तान जाना चुनेंगे. लेकिन उस्मान के फैसले ने सबको चौंका दिया. उस्मान ने भारत को चुना. उनकी रेजीमेंट के साथी अधिकारियों ने उस्मान के फैसले पर सवाल उठाए. उनसे दोबारा सोचने को कहा गया.

बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई. मोहम्मद अली जिन्ना और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली ने उस्मान को जल्दी प्रोमोशन का ऑफर दिया. दावा किया जाता है कि उस्मान को पाकिस्तान सेना का अध्यक्ष बनने का भी ऑफर दिया गया. लेकिन कोई पैतरा काम ना आया. उस्मान टस से मस ना हुए. उस्मान अपने देश लौटे और 77 पैराशूट ब्रिगेड के साथ अमृतसर के लिए रवाना हो गए.

1947 की लड़ाई

बंटवारे और आज़ादी के बाद अभी दो महीने भी नहीं बीते. अक्टूबर, 1947 में कबाइलियों ने पाकिस्तान सेना की मदद से कश्मीर पर हमला कर दिया. वीके सिंह की किताब के मुताबिक मुजफ्फराबाद (अब POK में) में उस वक्त जम्मू एंड कश्मीर इन्फैंट्री की चौथी बटालियन तैनात थी. इस बटालियन में दो मुस्लिम कंपनी थी और दो डोगरा कंपनी. लेकिन 22 अक्टूबर को मुस्मिलों ने डोगरों पर हमला कर दिया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया. घुसपैठियों के लिए अब रास्ता खुल चुका था. और अक्टूबर खत्म होने से पहले तक ये घुसपैठिये श्रीनगर के नज़दीक पहुंच गए थे. 27 अक्टूबर को भारतीय सेना की पहली 1 सिख बटालियन ने कश्मीर के लिए कूच किया. 28 अक्टूबर को 50 पैरा ब्रिगेड को कश्मीर कूच करने के ऑर्डर्स आ चुके थे. 50 पैरा को जम्मू से श्रीनगर के रास्ते को सुरक्षित करने का जिम्मा मिला और साथ ही लॉ एंड ऑर्डर का भी.
7 नवंबर को पाकिस्तानियों ने राजौरी पर कब्जा कर लिया. कहा जाता है कि करीब 30 हजार हिन्दू मारे गए, घायल हुए या अगवा कर लिए गए. उस समय जम्मू एंड कश्मीर डिवीज़न(JAK) की कमान संभार रहे थे मेजर जनरल कलवंत सिंह. 50 पैरा 13 नवंबर को अखनूर पहुंची. कलवंत सिंह ने ब्रिगेड को नौशेरा, मीरपुर, कोटली और पुंछ को दोबारा कब्जे में लेने का आदेश दिया. कलवंत के प्लान के मुताबिक 16 नवंबर को नौशेरा, 17 को झंगड़, 18 को कोटली और 20 नवंबर तक 50 पैरा मीरपुर को अपने कब्जे में ले ले. कलवंत का प्लान अतिआत्मविश्वासी था. 50 पैरा को उस समय कमांड कर रहे थे ब्रिगेडियर वाई एस परांजपे. परांजपे को कलवंत का प्लान रियलिस्टिक नहीं लग रहा था. लेकिन बात वही कि सेना में सुपीरियर की बात कोई काट नहीं सकता.

परांजपे ने नौशेरा और झंगड़ पर तो फतह पा ली. 26 नवंबर तक 50 पैरा ने कोटली भी अपने कब्जे में ले लिया. लेकिन मीरपुर तक पहुंचते-पहुंचते देर हो गई और कलवंत का प्लान फेल हो गया. सैंकड़ों सैनिक मारे गए. कलंवत का गुस्सा ब्रिगेडियर पर निकला. उन्होंने कहा अगर परांजपे की जगह कोई एनर्जी वाला ब्रिगेडियर होता तो कोटली भी हमारा होता.

परांजपे नौशेरा में घायल हो गए थे. 77 पैरा ब्रिगेड की कमान संभाल रहे ब्रिगेडियर उस्मान को आदेश मिला कि अब वो 50 पैरा की कमान संभालें और परांजपे को रिलीव करें. 50 पैरा तब नौशेरा में डटी थी. लेकिन लगभग चारों तरफ से पाकिस्तानियों ने घेरा हुआ था. झंगड़ गिर चुका था. और 24 दिसंबर की सुबह पाकिस्तानी सेना ने नौशेरा पर हमला बोल दिया. 25 दिसंबर को मोहम्मद अली जिन्ना का जन्मदिन होता था. और पाकिस्तानी सेना नौशेरा जिन्ना को तोहफे के तौर पर देना चाहती थी. कुछ ही दिनों के अंतराल पर कबाइलियों ने पाक सेना की मदद से नौशेरा पर तीन दफा अटैक किया. लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान के सैनिकों ने नौशेरा पर कब्जा नहीं होने दिया.

इस दौरान ब्रिगेडियर उस्मान को एक और समस्या का सामना करना पड़ा. उनके जवानों का भरोसा जीतना. वो मुस्लिम थे और ब्रिगेड के ज्यादातर जवान हिंदू थे. मुजफ्फराबाद की घटना के बाद ये अविश्वास ज्यादा हो गया था. लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान ने जवानों का भरोसा जीतने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया. उन्होंने ब्रिगेड के जवानों को आदेश दिया कि आम तौर पर जब सैनिक एक दूसरे से मिलेंगे और दुआ सलाम करेंगे तो 'जय हिंद'बोलेंगे. कहते हैं ब्रिगेडियर उस्मान का धर्म कभी उनके प्रोफेशन के आंड़े नहीं आया. सेना में जय हिंद की ये परंपरा आज भी कायम है.

जनवरी 1948 में ले. जनरल के एम करियप्पा ने नौशेरा का दौरा किया. करियप्पा ने हाल ही में डीईपी कमान का जिम्मा लिया था जिसे अब वेस्टर्न कमान के नाम से जाना जाता है. करियप्पा ने नौशेरा के हालात का जायजा लिया. लौटते समय हवाई पट्टी पर करियप्पा ने उस्मान को बुलाया. करियप्पा ने उस्मान से कहा- 

“मैं चाहता हूं कि कोट पर उस्मान के जवान कब्जा कर लें.” 

कोट उस रेंज में सबसे ऊंची पहाड़ी थी. और कोट से नौशेरा पर पूरी नज़र रखी जा सकती थी. इसलिए नौशेरा जीतने के लिए कोट जीतना जरूरी था. उस्मान ने अपने कमांडर को भरोसा दिलाया कि कुछ दिन में कोट पर हमारी फतह होगी.

उस्मान ने फूल प्रूफ बनाया. कोट पर ऑपरेशन का कोड वर्ड था कीपर. जनरल करियप्पा को सेना में इसी नाम से जाने जाते हैं. कोट नौशेरा से 9 किलोमीटर नॉर्थ ईस्ट में स्थित था. और वहां से नौशेरा पर तीन तरह से नज़र रखी जा सकती थी. उस्मान ने 3 पैरा MLI को दाहिनी तरफ से पथरडी और उपर्ला डंडेसर पर कब्जा करने के लिए भेजा. और 2/2 पंजाब को उसी समय कोट पर अटैक करने का आदेश दिया गया. 

इधर आर्मी की मदद के लिए इसी समय एयरफोर्स ने जम्मू एयरबेस से उड़ान भरी. 3 पैरा MLI ने पथरडी और उपर्ला डंडेसर पर आसानी से कब्जा कर लिया. इधर 2/2 पंजाब ने 1 फरवरी, 1948 को सुबह साढ़े 6 बजे कोट पर हमला किया. आधे घंटे में भारतीय सेना ने कोट खाली करा लिया. 7 बजकर 10 मिनट पर कोट जीतने का ऐलान कर दिया. 

लेकिन यहां जवानों से थोड़ी लापरवाही हो गई. 2/2 पंजाब ने कोट के रियाहशी इलाकों में घरों की तलाशी नहीं ली थी. और कुछ कबाइली घरों में छिपे थे. थोड़ी देर बाद इन्होंने हमला कर दिया. उस्मान को संदेह था. इसलिए पहले से ही दो कंपनियां रिजर्व पर रखी थीं. उन दोनों को आगे बढ़ने का आदेश दिया गया. भारी गोलाबारी और हवाई हमले के बाद सुबह 10 बजकर 10 मिनट पर कोट पर फतह का ऐलान कर दिया गया.

ये फतह कोई छोटी जीत नहीं थी. कोट में भारतीय सेना ने 156 पाकिस्तानियों को मारा, 200 घायल हुए, जबकि 2/2 पैरा के 7 जवान शहीद हुए. इधर पथरडी और उपर्ला डंडेसर में 50 दुश्मन मारे और अपने 3 जवान शहीद हुए. कोट पर हार पाकिस्तान को परेशान करने वाली थी. क्योंकि इसके बाद से नौशेरा की सप्लाई टूट गई थी.

नौशेरा पर फतह

कोट और पथरडी पर कब्जा होने के बाद पाकिस्तानियों का साहस डगमगा गया था. 6 फरवरी, 1948 को शुरू हुई भारत पाकिस्तान की सबसे अहम लड़ाई. बैटल ऑफ नौशेरा. इस बार ब्रिगेडियर उस्मान और ज्यादा मज़बूत थे. ब्रिगेडियर के पास नौशेरा में उस समय 5 बटालियन थीं. उस्मान ने प्लान बनाया था कि सुबह 6 बजे कलाल पर हमला करेंगे. लेकिन इंटेलिजेंस ने रिपोर्ट दी कि उसी दिन पाकिस्तान नौशेरा पर एक बार फिर हमला करेगा.

6 फरवरी को सुबह 6 बजकर 40 मिनट पर दुश्मन ने हमला कर दिया. 11 हजार सैनिकों के साथ. 3 हजार पठानों ने तेन धार और 3 हजार ने कोट पर एक साथ हमला किया. लगातार 20 मिनट पर बमबारी जारी रही. करीब 5 हजार कबाइलियों ने कंगोता, रेडियन और आसपास की चौकियों पर धावा बोल दिया. उस्मान को इस बात का संदेह था कि दुश्मन तेन धार पर हमला करेगा. उन्होंने पहले से ही मेजर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में 3 पैरा राजपूत की एक कपंनी तेन धार की चढ़ाई पर तैनात कर दी थी.

तेन धार में दुश्मन ने सबसे पहले जिस चौकी पर हमला किया उसमें 27 जवान थे. हमला घातक था. 24 मारे गए. बचे सिर्फ तीन. तीनों ने पूरी ताकत झोंक दी. नौबत हाथापाई तक आ पहुंची. इधर खतरे को भांपते हुए उस्मान ने मेजर गुरदयाल को सवा 7 बजे आगे बढ़ने का आदेश दे दिया. जब तक गुरदयाल पहुंचे दो सैनिक और मारे जा चुके थे. एक सिर्फ भारत की उम्मीद पर लड़ रहा था. लेकिन री इंफोर्समेंट पहुंचते ही लड़ाई की पूरी शक्ल बदल गई. तेन धार और कोट में जमकर युद्ध हुआ. दक्षिण पश्चिम से 5000 पठानों ने नाक में दम कर रखा था. लेकिन इस भीषण युद्ध में दुश्मन कामयाब नहीं हो पाया.

पाकिस्तान का नौशेरा पर एक और अटैक फेल हो गया था. दुश्मन के करीब 2000 सैनिक मारे गए. 33 भारतीय जवानों ने भी शहादत देकर नौशेरा जीत लिया था. नौशेरा की लड़ाई का एक और दिलचस्प किस्सा है. ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा के अनाथ बच्चों का इकट्ठा किया था. उस्मान ने इन बच्चों के खाने पीने, रहने और पढ़ाई कराई. नौशेरा की लड़ाई में ये बच्चे किचन से बचाखुचा सामान निकाल कर दुश्मन पर फेंक रहे थे. इसके अलावा युद्ध के दौरान इन बच्चों ने मैसेंजर का काम भी किया. युद्ध के बाद इनमें से तीन बच्चों को सम्मानित किया गया. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इन तीन बच्चों सोने की घड़ी गिफ्ट दी.

नौशेरा की लड़ाई ने रातों रात उस्मान को देश का हीरो बना दिया था. इस ऑपरेशन के तुरंत बाद JAK डिवीज़न के कमांडिंग ऑफिसर कलवंत सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और जीत का पूरा क्रेडिट ब्रिगेडियर उस्मान को दिया. हालांकि जब ये बात उस्मान को पता चली तो उन्होंने मेजर जनरल कलवंत सिंह को चिट्ठी लिखी. चिट्ठी में उन्होंने लिखा कि इस जीत श्रेय उन्हें नहीं बल्कि जवानों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने पूरी ताकत से नौशेरा को बचाया और अपनी शहादत दी. इस लड़ाई की जीत के बाद ब्रिगेडियर उस्मान को 'नौशेरा का शेर' कहा गया. नौशेरा की हार के बाद पाकिस्तान इतना बौखला गया था कि उसने ब्रिगेडियर उस्मान पर 50 हजार का इनाम रखा.

झंगड़ की जंग

दिसंबर 1947 में झंगड़ जब पाकिस्तान के कब्जे में चला गया तो ब्रिगेडियर उस्मान ने प्रण किया कि वो तब तक पलंग पर नहीं लेटेंगे जब तक झंगड़ पर दोबारा कब्जा नहीं हो जाता. नौशेरा पर जीत के बाद अब बारी झंगड़ की आ चुकी थी. 10 मार्च, 1948 ने मेजर जनरल कलवंत ने झंगड़ पर फतह का ऑर्डर दे दिया था. और फिर ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी ब्रिगेड के सैनिकों के लिए फेमस चिट्ठी जारी की जिसमें उन्होंने लॉर्ड मैकाले की 'Horatious' कविता लिखी थी.

चिट्ठी में ब्रिगेडियर उस्मान ने लिखा,

झगड़ पर दोबारा कब्जे का वो समय आ गया जिसके लिए हमने महीनों तैयारी की है. ये आसान नहीं होगा लेकिन मुझे उम्मीद है कि हम जीतेंगे क्योंकि हमारा प्लान और तैयारी पुख्ता है. और उससे भी ज्यादा मुझे आप लोगों पर भरोसा है कि जिसे हमने 24 जनवरी को खो दिया था उसे हासिल कर लेंगे. पूरी दुनिया की निगाहें हम पर हैं. हर देशवासी हमारी ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है. हम हार नहीं सकते. तो दोस्तो! आगे बढ़ो. झंगड़ पर फतह का वक्त आ गया है.

इस ऑपरेशन को नाम दिया गया 'विजय'. 12 मार्च को ऑपरेशन विजय शुरू हुआ. दो बार 50 पैरा ब्रिगेड ने कूच किया. लेकिन बारिश की वजह से प्लान आगे नहीं बढ़ सका. इसके बाद 17 मार्च 1948 की सुबह साढ़े 7 बजे जवानों ने फिर थल नाका पर हमला बोल दिया. वीके सिंह अपनी किताब में लिखते हैं कि जब भारतीय जवान पाकिस्तानी बंकरों में पहुंचे तो वो खाना बना रहे थे. चूल्हे पर चाय चढ़ी थी. ब्रिगेडियर उस्मान के जवानों ने पाकिस्तानियों को कोई मौका नहीं दिया. इससे पहले कि पाकिस्तानी कुछ समझ पाते काम हो चुका था. 17 मार्च के इस ऑपरेशन में 3 पैरा MLI के किसी जवान को कुछ नहीं हुआ.

3 पैरा MLI के जवानों ने फिर थल नाका पर आराम करना मुनासिब नहीं समझा. ये बटालियन 3 पैरा राजपूत की एक कंपनी के साथ सुस्लोती धार की तरफ कूच कर गई, जिसको दोपहर 1 बजे तक कब्जे में ले लिया गया. 19 इन्फैंट्री ब्रिगेड के जवानों ने 17 मार्च तक गायकोट के जंगल के रास्ते को साफ कर दिया था. अब बारी थी फाइनल असॉल्ट की. 18 मार्च, 1948 की सुबह साढ़े 8 बजे झंगड़ पर 3 पैरा राजपूत, 1 पटियाला और 3 पैरा MLI बटालियन ने तीन तरफा हमला बोला. दोपहर एक बजे 19 इन्फैंट्री ब्रिगेड झंगड़ के अंदर थी. ऑपरेशन विजय खत्म हो चुका था.

ब्रिगेडियर उस्मान का प्रण पूरा हो चुका था. झंगड़ भारत का हो चुका था. ब्रिगेडियर के लिए चारपाई चाहिए थी. लेकिन पूरे ब्रिगेड में एक भी एक्स्ट्रा चारपाई नहीं थी. उस दिन एक चारपाई गांव से आई और ब्रिगेडियर उस्मान महीनों पर बाद उस दिन चारपाई पर सोए.

ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत

बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक ले. जनरल (रि.) एस के सिन्हा बताते हैं कि, 

"हर शाम साढ़े पांच बजे ब्रिगेडियर उस्मान अपने मातहतों की बैठक लिया करते थे. उस दिन बैठक आधे घंटे पहले बुलाई गई और जल्दी समाप्त हो गई. 5 बज कर 45 पर क़बाइलियों ने ब्रिगेड मुख्यालय पर गोले बरसाने शुरू कर दिए. चार गोले तंबू से क़रीब 500 मीटर उत्तर में गिरे. हर कोई आड़ लेने के लिए भागा. उस्मान ने सिग्नलर्स के बंकर को ऊपर एक चट्टान के पीछे आड़ ली. उनकी तोपों को चुप कराने के लिए हमने भी गोलाबारी शुरू कर दी."

"अचानक उस्मान ने मेजर भगवान सिंह को आदेश दिया कि वो तोप को पश्चिम की तरफ़ घुमाएं और प्वाइंट 3150 पर निशाना लें. भगवान ये आदेश सुन कर थोड़ा चकित हुए, क्योंकि दुश्मन की तरफ़ से तो दक्षिण की तरफ़ से फ़ायर आ रहा था. लेकिन उन्होंने उस्मान के आदेश का पालन करते हुए अपनी तोपों के मुंह उस तरफ़ कर दिए जहां उस्मान ने इशारा किया था. वहां पर कबाइलियों की 'आर्टलरी ऑब्ज़रवेशन पोस्ट' थी. इसका नतीजा ये हुआ कि वहां से फ़ायर आना बंद हो गया."

उस रात पाकिस्तानियों ने करीब 800 गोले दागे. एक गोला चट्टान पर जाकर गिरा. वहीं जहां ब्रिगेडियर उस्मान ने आड़ ली थी. उस गोले के टुकड़े उस्मान के शरीर में धंस गए. और उसी समय उनकी मौत हो गई. ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत ने पूरे हिन्दुस्तान को गमगीन कर दिया था. ब्रिगेडियर उस्मान के अंतिम संस्कार में आज़ाद भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला भी शामिल हुए. उन्हें दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में सुपर्द-ए-खाक किया गया. ब्रिगेडियर उस्मान को परणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया.


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